संत रविदास की सामाजिक चेतना एवं ज्ञान की विरासत

  • धीरज प्रताप मित्र शोध छात्र, समाजशास्त्र विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
Keywords: परंपरा, निर्गुण, पंथ, पाखण्ड, वर्ण, समाज, अद्वैतवाद, ब्रह्म, जीवन,दर्शन

Abstract

प्रस्तुत लेख संत रविदास के जीवन दर्शन, ज्ञान परंपरा एवं वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता पर आधारित है। मध्यकाल में जब भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा था तथा विभिन्न प्रकार के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आन्दोलन या तो पनप रहे थे अथवा अपनी सामाजिक स्वीकृति हेतु संघर्षरत थे उस समय निर्गुण परम्परा के संत यथा कबीर- रविदास ब्रह्म की गुणातीत व्याख्या कर ना केवल वेदादि पर प्रहार कर जातिगत आधारित कुरीतियों का विरोध कर रहे थे बल्कि सिद्ध नाथों की परम्परा में वेदादि, पाखण्ड, बाह्याडम्बर, जाति भेद के विरोध के द्वारा मनुष्यता की मुक्ति की अलग ज्योति प्रज्वलित किए। इस संत परम्परा ने ‘मन की साधना ही वास्तविक साधना है, और भक्ति का सार तत्व प्रेम है’१ की धार्मिक दृष्टि को जनमानस के सामने प्रत्यक्ष किया। कथित तौर पर नीची कही जाने वाली जाति में जन्म लेने के बावजूद संत रविदास ने अपनी वाणी, कर्म एवं मन से निवृत्ति परक प्रवृत्तिमय निष्काम कर्म की शिक्षा देने एवं तदनुरूप अपने जीवन में सांगोपांग आचरण करते हुए उच्च जीवन आदर्श भी प्रस्तुत किए। उन्होंने अपने पदों –शिक्षाओं के माध्यम से विनम्र शब्दावलियों में सामाजिक बुराईयों एवं पाखण्ड आदि का विरोध कर समाज सुधार में अपना योगदान दिया। निर्गुण संतों की दृष्टि में ब्रह्म तीन गुणों से परे है, वह सर्व व्यापी है।२ उनके पदों में वर्णित सत्य शास्वत हैं एवं उनकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में भी बरकरार है।
Published
2023-03-01