तुलसीदास की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना : एक समाजशास्त्रीय पाठ
Keywords:
वर्ण,धर्म, राज्य, कर्म, जाति, समाज,परंपरा,पाखण्ड, ब्रह्म, जीवन दर्शन
Abstract
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में जब यहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक, मानसिक एवं वैचारिक स्तर पर ना केवल जड़ता की स्थिति थी बल्कि सांस्कृतिक टकराव युक्त संक्रमणकाल भी चल रहा था। जब देश के करोड़ों दलित, पीड़ित, वंचित एवं शोषित सामाजिक व्यवस्था की भयानक बेड़ियों में बंधे कराह रहे थे तब भक्ति आन्दोलन के रूप में एक जन आन्दोलन खड़ा हुआ जिसने ना केवल इस तबके के लोगों में आत्मसम्मानयुक्त जीवन जीने हेतु प्रेरित एवं निर्देशित किया बल्कि तत्कालीन ऊंच- नीच, कृत्रिम भेदभाव, पाखण्ड एवं समाज में प्रचलित अमानवीय रूढ़ियों का भी विरोध कर वर्ग, जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के भेद से इतर सभी मानवों के लिए ईश्वर की सामान भक्ति एवं तदनुसार मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया. यह एक नई समाज व्यवस्था के विकसित होने का दौर था जिसका नेतृत्व कबीर, रैदास, मीरा, सूरदास, एवं तुलसीदास जैसे संत एवं भक्त कवियों ने किया। इन संतों एवं कवियों में तुलसीदास जी का स्थान विशिष्ट रहा है। प्रभु राम की भक्ति के अवलंबन में इन्होने ना केवल विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों एवं पंथों की एकता का सूत्र बांधा बल्कि भारतीय समाज व्यवस्था में व्याप्त कलह एवं बिखराव को भी शास्त्र सम्मत ढंग से व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने श्रेष्ट नैतिक मूल्यों की स्थापना हेतु अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रयत्न किया एवं ना केवल भक्त संतों एवं कवियों के बीच अपना स्थान बनाया बल्कि भारतीय जनमानस के भी मानस पटल पर हमेशा के लिए अंकित हो गए। प्रस्तुत लेख तुलसीदास जी की सामाजिक एवं धार्मिक अंतर्दृष्टि को समझने एवं समेटने का प्रयास है
Published
2023-03-01
Section
Research Article
Copyright (c) 2023 Scholarly Research Journal for Interdisciplinary Studies
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