सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

  • एम0 पी0 सिंह शोध निर्देशक, इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, डॉ0 राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या
  • रमाकान्त सिंह* *शोध छात्र डॉ0 राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या

Abstract

भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा इतिहास के प्रारम्भ से ही दिखाई देती है। वस्तुतः इसे भारतीय आत्मा को सन्दर्भित करने वाला प्रत्यय माना जा सकता है। प्राचीन कालीन साहित्य में इस प्रकार के स्वर अनेक स्थानों पर प्राप्त होते है। भारत की एक निश्चित सीमाओं का उल्लेख करते हुए उसकी सन्तति को भारती कहना तथा विभिन्न प्रकार की भिन्नताओं के मध्य एक समान अनुप्राणित करने वाली भावनाओं के रुप में इसकों देखा जा सकता है। वर्तमान काल में इस अवधारणा के राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक पहलुओं पर अधिक जोर दिया जाने लगा है, जिसके कारण एक विशेष बौद्धिक वर्ग के द्वारा इसे हिन्दू संस्कृति से जोड कर देखा जाने लगा है। वास्तविकता यह है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को राष्ट्रवाद के एक प्रकार के रुप में देखे जाने की आवश्यकता है, जिसका किसी धर्म अथवा संप्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। यह मानवता के उच्चतम शिखर के उद्घोष के रुप में देखा जाना चाहिए। इस अवधारणा में धर्म, संप्रदाय, भाषा, जाति, प्रदेश इत्यादि के रुप में किसी प्रकार के विभाजन का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारतीय संस्कृति पर आधारित इस प्रकार के राष्ट्रवाद को अपने उद्भव काल से ही प्रश्रय देती रही है तथा इसे राष्ट्रीय उत्थान के महत्वपूर्ण कारक के रुप में स्वीकार करती है।

Published
2022-12-08