"संगम नगरी प्रयागराज: शिवकचेहरी व कोटेश्वर महादेव का प्रत्यक्ष अवलोकन पर आधारित एक समाजशास्त्रीय अध्ययन"

  • नीलम त्रिपाठी असि. प्रोफेसर. समाजशास्त्र: वी.बी.जी.डी. पी.जी. कॉलेज, मैनपुर-गोण्डा
  • प्रगति शुक्ला* *शोधछात्रा- समाजशास्त्र: डॉ.रा.म.लो. अवध वि.वि. अयोध्या

Abstract

प्रयागराज संगम नगरी दो पवित्र नदियों- गंगा व यमुना के संगम (जहाँ सरस्वती गुप्त रूप से मिलती हैं) तथा अपने धार्मिक स्थलों के अलंकरण व तीर्थराज के नाम से जाना जाता है। न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी प्रयागराज का अपना अलग महत्व है। आश्चर्य की बात यह है कि यहाँ (संगम तट पर) लगने वाले पर्व महाकुम्भ (12 वर्ष) व अर्धकुम्भ (6 वर्ष) में न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण देश-विदेश से हर जाति, वर्ग, समुदाय के लोग आते हैं और पवित्र गंगा नदी में आस्था की डुबकी लगाते हैं। यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है और वर्तमान में आधुनिकता के समय में भी लोगों की आस्था में कोई परिवर्तन दृष्टिगत नहीं होता है। इसीलिए तो प्रयागराज, संगम को आस्था की नगरी कहा जाता है। यहाँ ठण्ड में संगम के किनारे साइबेरियन पक्षी संगम की सुन्दरता को दुगना कर देते हैं। प्रयागराज में अधिकतर मंदिर गंगा तट के समीप ही बनाये गये हैं। बरसात के महीने में माँ गंगा का पानी मंदिर में अवश्य आ जाता है। गर्मी, ठण्डी, बरसात हर मौसम में तीर्थयात्री यहाँ आते हैं परन्तु ठण्ड में माघ के महीने में संगम व गंगा में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाते हैं।  पुराणों में तीर्थराज का अर्थ तीर्थों का राजा बताया गया है और वही संगम के सन्दर्भ में ऋग्वेद में यह वर्णित किया गया है कि  कृष्ण और स्वेत जल वाली दो सरिताओं का संगम है यहाँ। माघ महीने में कल्पवास (1 महीने कपड़े के तम्बू बनाकर जप, तप, स्नान व दान) का बहुत बड़ा महत्व है।

Published
2022-12-08