भारतीय संस्कृति के सामाजिक आयाम
Abstract
संस्कृति सरिता का प्रवाह मार्ग है जो समय-समय पर बदलता रहता है इसलिए संस्कृति को समाज व्यवस्था के साथ मिलाकर देखा जाता है। संस्कृति की स्त्रोतस्विनी अपने परम्परित मार्ग को सामाजिक संस्थाओं (जो कालांतर में प्राणहीन हो जाती है।) छोड़कर बढ़ती हैं और नये क्षेत्रों को अभिषिक्त करती है, उसके प्रश्रय से नयी संस्थाएं विकसित और समृद्ध होती हैैं। संस्कृत जीवन के उन समतोलों का नाम है, जो मनुष्य के अन्दर व्यवहार, ज्ञान और विवेक उत्पन्न करते हैं। संस्कृति मनुष्य के सामाजिक व्यवहारों कों निश्चित करती है और मानवीय संस्थाओं को गति प्रदान करती है। संस्कृति साहित्य और भाषा को संवारती है और मानव जीवन के आदर्श एवं सिद्धान्तों को प्रकाश्मान करती है। संस्कृति समाज के भावनात्मक एवं आदर्श विचारों में निहित है। समतोलों को स्वीकार कर समाज सहस्त्रों वर्ष तक चलता है, तब संस्कृति महान रूप धारण करती है। जीवन के सर्वतोन्मुखी विकास हेतू एक अपरिहार्य साधन है, संस्कृति।