मुक्तिबोध की कथा भाषा

  • सत्यपाल तिवारी निदेशक, मानविकी विद्याशाखा, उ.प्र.राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, प्रयागराज

Abstract

मुक्तिबोध की कथा साहित्य की भाषाः- भाषा 26 और अर्थ का सत्युज्य है वह शब्दार्थों का संवहन करने वाली होती है। अर्थो का जितना है संबल और प्रांजल वहन भाषा करेगी । वह उतनी है बलवती और अर्थवती होगी। यही भाषारथी शक्ति है। भाषा निरन्तर परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया से गुुजरती चलती है। अपने को समयानुकूल बनाती चलती है यह उसका गुण है। चाहे वह काव्य की भाषा हो या कि गद्य की हिन्दी भाषा हो या फिर अन्य कोई भाषा। गद्य के विकास में साथ ही साथ उसकी भाषा संरचना के विकास की भी प्रक्रिया निरन्तर उतार-चढ़ाव से होकर गुजर रही है। जैसे-जैसे गद्य रूपों का विकास और विस्तार बढ़ रहा है वैसे ही भाषा से सम्बन्धित नयी-नयी समस्याएँ भी सामने आयी। उपन्यास और कहानी के तन्त्रागत विकास और कथा प्रस्तुति की विदधता के कारण भाषागत संभावनाओं का सूक्ष्मतर बोध भी विकसित हुआ। कथा प्रस्तुति से सम्बद्ध नयी दीक्षा का प्रथावन केवल कथाकार पर पग आपितु उसके पाठयों पर भी पड़ा। उसकी अपेक्षाएँ भी बढ़ रही थी। वह गद्य भाषा में और अधिक संभावनाएँ तलाश रहा था। इस तलाश का ही वर्तमान की पाठ्य की विवेचक बुद्धि की लगातार बढ़ रही थी। यही कारण है कि कथावार निरन्तर एक नयी कथा भाषा गढ़ रहे थे। भाषा से सम्बन्धित इन तमाम समस्याओं से जुड़कर हिन्दी कथा भाषा का नया स्वरूप निर्मित और विकसित हो रहा था। इस दृष्टि से प्रेमचन्द का योगदान महत्वपूर्ण है। उनके हाथों हिन्दी कथा भाषा होती हुई दिखाई देती है। आगे चलकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती निर्मलवर्मा तथा मुक्तिबोध अपने-अपने कथा साहित्य में भाषा प्रयोग के अनेक स्तरों से गुजरते हैं। भाषा में नया प्रयोग भी करते हैं। उसे एक मुकम्मल स्वरूप प्रदान करते हुए दिखाई देते है।

Published
2022-12-08