संस्कृत गद्य साहित्य का विकास

  • एखलाक उद्दीन खान शोधच्छात्र: संस्कृत, वी.ब. सिंह पूर्वांचल वि.वि. जौनपुर (उ.प्र.)
  • सीमा सिंह* *असि. प्रोफे. एवं विभागाध्यक्ष: संस्कृत राजा हरपाल सिंह महाविद्यालय, सिंगरामऊ, जौनपुर (उ.प्र.)

Abstract

वैदिककाल से आरम्भ कर मध्यकाल तक गद्य के विकसित होने का इतिहास बड़ा ही मनोरम है। गद्य के दो प्रकार के रूप मिलते हैं- वैदिककाल का सीधा-सादा बोलचाल का गद्य तथा लौकिक संस्कृत का प्रौढ़, समासबहुल गाढबन्धवाला गद्य। दोनों प्रकार के गद्यों में अपना विशिष्ट सौन्दर्य तथा मोहकता है। वैदिक गद्य में सीधे-सादे, छोटे-छोटे शब्दों का हम प्रयोग पाते हैं। ‘ह’ व ‘उ’ अव्यय वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त हें। इनके प्रयोग से वाक्य में रोचकता तथा सुन्दरता का समावेश हो जाता है। समास की विशेष कमी है। उदाहरणों का बहुल प्रयोग है। उपमा तथा रूपक का कमनीय सन्निवेश वैदिक गद्य को विदग्धों की दृष्टि से हृदयावर्जक बनाये हुए है। इस कथन की पुष्टि में कालक्रम से गद्य का निरीक्षण आवश्यक होगा।

Published
2021-12-06