भारविकृत किरातार्जुनीयम् का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन

  • नागरानी देवी शोधच्छात्रा: संस्कृत, वी.ब. सिंह पूर्वांचल वि.वि. जौनपुर (उ.प्र.)
  • सीमा सिंह* *असि. प्रोफे. एवं विभागाध्यक्ष: संस्कृत राजा हरपाल सिंह महाविद्यालय, सिंगरामऊ, जौनपुर (उ.प्र.)

Abstract

संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास की कृतियों के अनन्तर भारवि के ‘किरातार्जुनीय’ का ही स्थान है। महाकाव्य की दृष्टि से आलोचकों ने ‘रघुवंश’ को लघुत्रयी’ में रखा है तथा ‘किरातार्जुनीय’ को बृहत्त्रयी में। यद्यपि सर्ग आदि की दृष्टि से रघुवंश काव्य किरातार्जुनीय से लघुकाय नहीं है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि काव्यकला के शिल्प विधान की दृष्टि से किरातार्जुनीय, रघुवंश महाकाव्य से उत्कृष्ट तथा ओजपूर्ण है। लोकप्रियता की दृष्टि से मेघदूत तथा कुमारसंभव के बाद किरातार्जुनीय का ही स्थान है। मनोहर अर्थगौरव से विभूषित, छोटे-छोटे समस्त पदों की सुललित कर्णप्रिय ध्वनि से गूँजते हुए सैकड़ों श्लोक अथवा श्लोकार्ध संस्कृत-प्रेमी समाज के कण्ठहार बने हुए हैं।

Published
2021-12-06