भूमि उपयोग परिवर्तन एवं जैव विविधता ह्रास: जनपद उन्नाव के विशेष सन्दर्भ में

  • दीपा यादव शोधछात्रा-जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर (म.प्र.)
  • आनन्दकर सिंह* *सह-अध्यापक: भूगोल विभाग शासकीय एस.एल.पी. कॉलेज, मुरार-ग्वालियर (म.प्र.)

Abstract

आदिकाल से मानव एवं प्रकृति के मध्य सम्बन्धों में प्राकृतिक वातावरण मानव जीवनयापन के लिए संसाधनों का आधार रहा है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के समस्त उपादनों के सम्पादन तथा विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के लिए ‘भूमि’ आधारभूत तत्व है। पृथ्वी तल पर जनसंख्या एवं प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में व्यापक विषमता देखने को मिलती है। मानव की विविध आवश्यकताओं- शहरीकरण, औद्योगीकरण, कृषि क्षेत्र के प्रसार, खनन, अवस्थापनात्मक सुविधाओं के विस्तार इत्यादि के कारण पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बढ़ता जा रहा है। प्रो. स्टाम्प के अनुसार भूमि उपयोग के निर्धारण में प्रत्येक भूमि इकाई के अनुकूलित उपयोग को निर्धारित किया जाता है। अर्थात् जो भूमि जिस उपयोग के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हो उसे उसके लिए ही प्रयोग किया जाना चाहिए। परन्तु सीमित भूमि संसाधन एवं तेजी से बढ़ती जनसंख्या और मनुष्य की अधिक पाने की भौतिकतावादी विचारधारा ने सामान्य भूमि उपयोग की अवधारणा को परिवर्तित कर दिया है।

Published
2021-12-06