पर्यावरण, परिस्थितिकीय एवं वर्तमान स्वरूप

  • BHARTI DWIVEDI POST – DOCTORAL, FELLOW, ICPR UNIVERSITY OF LUCKNOW, U.P.

Abstract

युग परिवर्तन सत्त प्रक्रिया है। ‘‘कलयुग‘‘ भी अवश्यंभावी था, परन्तु ‘‘कल‘‘ की क्षुधाग्नि इतनी विनाशकारक होगी कि जो प्राकृतिक तादात्म्य एवं संतुलन के 5,000 वर्षों से सुव्यवस्थित, स्वनियमन को नष्ट कर मात्र एक शताब्दी से भी कम समय में छिन्न-विछिन्न कर देगी, सम्भवतः मानव जगत् ने भी यह आशा न की होगी। जब पक्षियों को चहचहाना बन्द हुआ तो पाश्चात्य चिंतन की निद्रा भंग हुयी तथा जिस तीव्रता से औद्योगिक विकास का चरम प्राप्त किया था वही गति ‘‘पर्यावरणवादी आन्दोलनों‘‘ में भी दृष्टिगत होने लगी। ‘‘म्हूमन सेंटरड‘‘ या ‘‘एंथ्रोप्रोसेंट्रिक‘‘ या उथला पारिस्थितिकी जैसे मनुष्य की प्रकृति के नियंत्रक और नियामक सम्प्रत्यय व विचारधारा, महासागरोें की ऊँची लहरों और भयंकर झंझावातों में बह गई और ‘‘ग्रीन इनवायरमेंटलिज्म‘‘ और ‘‘गहन पारिस्थितिकी‘‘ की विचारधारा प्रसूत हुई जहां मनुष्य कसे प्रकृति से संयुक्त माना गया दोनों में अंतरसंबंधों व अंतरनिर्भरता का सिद्धांत प्रस्फुटित हुआ।

Published
2021-12-06